अधिक उत्पादन के लिए करें चने की वैज्ञानिक खेती, आइए जानें
दलहनी फसलों में चना एक महत्वपूर्ण फसल है। यह सेहत और प्रकृति दोनों के लिए फायदेमंद है। आइए, इस ब्लॉग में चने की खेती को विस्तार से जानें...

चना प्रोटीन से भरपूर एक दलहनी फसल है। यह सेहत के साथ-साथ प्रकृति के लिए भी फायदेमंद है। चने में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम, लोहा और विटामिन काफी मात्रा में पाया जाता है। चने का मुख्य उपयोग दाल, बेसन, सब्जी, मिठाइयां आदि बनाने में होता है। चने की खेती (chane ki kheti) से मिट्टी उपजाऊ होती है। इसकी जड़ों में पाए जाने वाले राईजोबियम जीवाणु मिट्टी को नाइट्रोजन उपलब्ध कराते हैं।
भारत की जलवायु चना उत्पादन के लिए अनुकूल है। हमारे देश में चने की खेती मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बिहार में की जाती है। यदि आप भी चने की खेती करना चाहते हैं, तो यह ब्लॉग आपके काम का है।
इसमें आप जानेंगे-
- जलवायु और मौसम
- चने के लिए उपयोगी मिट्टी
- खेती का सही समय
- चने की उन्नतशील किस्में
- खेती की तैयारी कैसे करें
- चने की खेती में सिंचाई
- खाद एवं उर्वरक प्रबंधन
- कटाई और भंडारण कैसे करें
- एक्सपर्ट की सलाह
सबसे पहले जलवायु और मौसम की बात।
जलवायु और मौसम
चना शुष्क और ठंडी जलवायु की फसल है। इसे रबी के मौसम में उगाया जाता है। इसकी खेती के लिए 24 से 30 डिग्री तापमान फायदेमंद होता है। चने की खेती के लिए ज़्यादा बारिश ज़रूरी नहीं होती है। इसके लिए मध्यम बारिश 60-90 सेमी की ज़रूरत होती है।
उपयोगी मिट्टी
इसकी खेती के लिए दोमट और काली मिट्टी उपयुक्त होती है। मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7 के बीच होना चाहिए।
खेती का सही समय
किसानों का हमेशा यही सवाल रहता है कि चने की खेती कब करें? तो किसान साथियों को बता दें कि चने की खेती अक्टूबर के आखिरी सप्ताह से नवंबर के पहले सप्ताह तक कर सकते हैं।
चने की अगेती खेती के लिए आप अक्टूबर के पहले सप्ताह से आखिरी सप्ताह तक कर सकते हैं। जबकि पिछेती खेती के लिए आप नवम्बर पहले सप्ताह से तीसरे सप्ताह तक कर सकते हैं। पिछेती खेती में किसानों को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता पड़ सकती है। पिछेती खेती में बीज की भी ज़्यादा मात्रा की ज़रूरत होती है।
चने की उन्नतशील किस्में
चने की प्रमुख किस्मों में छोटा चना, मध्यम और काबुली चना शामिल है। आइए, चने की कुछ प्रमुख किस्मों के बारे में जानते हैं।
जी.सी.पी 105: यह किस्म उकठा और जड़ गलन रोग के प्रति सहनशील है। इसका दाना मध्यम आकार का होता है। इसकी फसल 140 से 145 दिन में तैयार हो जाती है। इसकी बुआई किसान 1 से 30 नवंबर के बीच कर सकते हैं। इस किस्म की औसत उपज 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो जाती है।
पूसा 362: यह किस्म पूसा (आईसीआर) द्वारा विकसित की गई है। इस किस्म के दाने मध्यम आकार के होते हैं। इसकी बुआई किसान 15 नवंबर से 15 दिसंबर के बीच कर सकते हैं। इस किस्म की फसल 130 से 140 दिन में तैयार हो जाती है। इस किस्म की औसत उपज 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो जाती है।
पूसा 372: यह चने की पछेती किस्म है। इसकी बुआई 15 नवंबर से 15 दिसंबर तक की जा सकती है। इस किस्म के दाने छोटे आकार के होते हैं। यह 130 से 140 दिन में पक कर तक तैयार हो जाते हैं। इसकी उत्पादन क्षमता 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इस किस्म की खास विशेषता है कि इसमें फली छेदक, उकठा और जड़ गलन जैसे रोग नहीं लगते हैं।
शुभ्रा: यह काबुली चना है। इसकी बुआई 15 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच की जाती है। चने की यह प्रजाति 135 से 140 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
एच. के. 94134: यह उकठा और जड़ गलन रोधी किस्म है, इसकी बुआई 15 अक्टूबर से 15 नवंबर से बीच कभी भी कर सकते हैं। यह किस्म 140 से 145 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इस किस्म का उत्पादन 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाता है।
सिंचित क्षेत्र के लिए उन्नत किस्में: वैसे तो चने के लिए पानी की बेहद कम सिंचाई की ज़रूरत होती है। लेकिन, कुछ किस्में पानी की उपलब्धता के आधार पर अनुसंशित (Recommended)की गई हैं। इनमें जीएनजी-469, जीएनजी-663, जीएनजी-1581 इत्यादि हैं।
जीएनजी-663: इस किस्म को वरदान के नाम से भी जाना जाता है। यह किस्म पकने में 150 से 155 दिन लेती है। इसकी औसत उपज 24 से 26 क्विंटल तक हो जाती है। इस किस्म में झुलसा रोग की सहन क्षमता होती है।
जीएनजी-469: इस किस्म को सम्राट के नाम से भी जाता है। यह किस्म 145 से 150 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। यह किस्म झुलसा, उकठा, जड़गलन से काफी हद तक रोग रोधी होती है। इस किस्म के दाने मोटे और आकर्षक होते हैं। इस किस्म से 26 से 28 क्विंटल तक पैदावार ली जा सकती है।
असिंचित क्षेत्र के लिए उन्नत किस्में: असिंचित किस्मों के लिए आरएसजी- 888,आरएसजी-807, आरएसजी- 884 हैं, जिसके लिए बहुत ही कम पानी की ज़रूरत होती है। इन किस्मों की खेती करने से किसानों को 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार मिल सकती है।
आरएसजी- 888: चने की इस किस्म में सूखा सहन करने की काफी क्षमता होती है। इसकी औसत उपज 20 से 25 क्विंटल तक हो जाती है। यह किस्म 130 से 135 दिन में तैयार हो जाती है। इस प्रजाति में भी सूखा, उकठा रोगों से लड़ने की क्षमता होती है।
आरएसजी-807: इस प्रजाति के बीज मोटे होते हैं। इस किस्म में जड़गलन, उकठा, फलीछेदक कीट, सूत्रकृमि के प्रति काफी रोग रोधी होती है। यह किस्म 140 से 150 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इस किस्म की औसत पैदावार 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। |
खेत की तैयारी
चने की अच्छी पैदावार के लिए किसानों को खेती की तैयारी बुआई से एक महीने पहले शुरू कर देनी चाहिए। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। इससे फसल को नुकसान पहुंचाने वाले खरपतवार और कीट नष्ट हो जाते हैं। खेत की तैयारी करते समय किसान हमेशा ध्यान रखें कि खेती की जुताई नमी रहते ही कर लें।
चने की बुआई के वक्त खेत को कम से कम तीन बार डिस्क हैरो से 6 इंच गहरी जुताई कर लें। इसके बाद देसी हल से जुताई कर पाटे से समतल कर लें। चने की बुआई करते समय बीजों की दूरी का भी ख्याल रखें। बीज की दूरी कम से कम 10-15 सेमी होनी चाहिए।
खाद और उर्वरक का प्रयोग
किसान भाइयों को जुताई के वक्त 8 से 10 टन गोबर की खाद और 250 किलो जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए। ध्यान रहे कि ये खाद अच्छी तरह से सड़ी गली होनी चाहिए, क्योंकि कच्ची गोबर खाद होने से दीमक लगने और खरपतवार होने की संभावना बढ़ जाती है।
कीट एवं रोग प्रबंधन
कटुआ और दीमक जैसे कीटों के बचाव के लिए क्वीनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 24 किलो प्रति हेक्टेयर भूमि में मिलाते हैं। जड़ गलन और उकठा जैसी बीमारियों के बचाव के लिए भूमि को ट्राईकोड्रामा हरजेनियम से उपचारित करते हैं। इसके लिए एक क्विंटल गोबर की खाद में 4 किलो ट्राईकोड्रामा का पाउडर मिलाकर, उसमें थोड़ा पानी का छिड़काव करें। फिर एक सप्ताह तक छाया में ढक कर रख देते हैं, फिर उसे बुआई के पहले खेत में जुताई के पहले मिला देते हैं।
चने में उकठा रोग के अलावा दूसरी सबसे बीमारी फली बनते समय होता है जिसे फली छेदक रोग कहते हैं। फली छेदक रोग प्रबंधन के लिए मोनाक्रोटोफॉस 40 ईसी. एक लीटर की दर से 600 से 800 लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन
जैसा कि किसानों आप जानते हैं कि चने के लिए ज़्यादा पानी की ज़रूरत नहीं होती है। बीज बुआई के 20 से 25 दिनों के बाद हल्की सिंचाई पौधों में कर सकते हैं। ध्यान रहे कि फसल में फूल लगते वक्त सिंचाई कभी नहीं करें, अन्यथा फूल झड़ सकती है।
कटाई और भंडारण
चने की फसल तैयार हो जाने पर इसकी कटाई सुबह के समय में करें। कटाई के बाद खलिहान में 4-5 दिन सूखाकर मड़ाई कर लें। भंडारण से पहले दानों को अच्छी तरह सूखा लें अन्यथा सूंडी (कीड़े) लगने की अधिक आशंका रहती है। चने की कटाई के बाद भंडारण के लिए भी किसानों को पर्याप्त ध्यान देने की आवश्यकता होती है। भंडारण के समय चने में नमी 10 से12 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए।
यदि चने की खेती उन्नत तरीके से करते हैं तो आपको प्रति हेक्टेयर 20 से 25 क्विंटल उपज मिल सकती है। इसके अलावा चने की फसल से भूसा भी प्राप्त होता जिसकी बाजार में डिमांड बहुत है।
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लेखक- दीपक गुप्ता